बिना तुम्हारे बंजर होगा आसमान
उजड़ी सी होगी सारी जमीन
फिर उसी धधकते हुए सूर्य के प्रखर तले
सब ओर चिलचिलाती काली चट्टानों पर
ठोकर खाता, टकराता भटकेगा समीर
भौंहों पर धुल-पसीना ले तन-मन हारा
बेचैन रहूंगा फिरता मैं मारा-मारा
देखता रहूँगा क्षितिजों की
सब तरफ गोल कोरी लकीर
फिर भी सूनेपन की आईने में चमकेगा लगातार
मेरी आँखों में रमे हुए मीठे आकारों का निखर
मैं संभल न पाऊंगा डालूँगा दृष्टि जिधर
अपना आँचल फैलायेगी वह सहज उधर.......
नीलकमल वैष्णव"अनिश"
०९६३०३०३०१०
०९६३०३०३०१७
2 टिप्पणियाँ:
खुबसूरत रचना....
सच में मिठास में "ब्रज माधुरी "की याद ताज़ा कर दी इस रचना ने .कृपया यदि मीटर का व्यवधान न हो तो "धुल "शब्द को धूल कर लें .आवाजाही बनी रहेगे अन्ना -भाई साहब !
एक टिप्पणी भेजें
आप अपने बहुमूल्य शब्दों से इसको और सुसज्जित करें
धन्यवाद