हमें विवेक की आँखें खोलकर यह देखना चाहिए कि प्रशंसा करने,
गिड़गिडाने, नाक रगडऩे या रिश्वत देने से हम किसी बुद्धिमान
संसारी का भी प्यार, अनुग्रह प्राप्त नहीं कर सकते तो
ईश्वर को इस प्रकार के बहकाने से कैसे संतुष्ट किया जा सकेगा? पूजा-उपासना का मतलब ईश्वर को, ईश्वरीय आयोजन एवं निर्देश को स्मृति पटल पर मजबूती से जमा लेना तथा
अपने में अधिकाधिक निर्मलता विवेकशीलता
उत्पन्न करना भर है,
यह अपना नित्य कर्म है जिससे आत्म-शोधन और
आत्मजागरण का प्रयोजन भर पूरा होता है।
ईश्वर इतने भर से संतुष्ट नहीं हो सकता ।
उसकी प्रसन्नता के दो बिन्दु हैं ।
प्रथम है, अपनी विचारणा, मनोभूमि, गुण, कर्म,
स्वभाव की श्रृंखला एवं गतिविधियों में अधिकाधिक
पवित्रता, उदारता, उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समावेश ।
द्वितीय है, लोकमंगल के लिए समर्पित किए गए बढ़-चढ़
कर अनुदान और श्रमदान ।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१३) |
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